भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

भालसरिक गाछ/ विदेह- इन्टरनेट (अंतर्जाल) पर मैथिलीक पहिल उपस्थिति

(c) २०००-२०२२ सर्वाधिकार सुरक्षित। विदेहमे प्रकाशित सभटा रचना आ आर्काइवक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि।  भालसरिक गाछ जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल http://www.geocities.com/.../bhalsarik_gachh.html , http://www.geocities.com/ggajendra   आदि लिंकपर  आ अखनो ५ जुलाइ २००४ क पोस्ट http://gajendrathakur.blogspot.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html   (किछु दिन लेल http://videha.com/2004/07/bhalsarik-gachh.html   लिंकपर, स्रोत wayback machine of https://web.archive.org/web/*/videha   258 capture(s) from 2004 to 2016- http://videha.com/  भालसरिक गाछ-प्रथम मैथिली ब्लॉग / मैथिली ब्लॉगक एग्रीगेटर) केर रूपमे इन्टरनेटपर  मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितक रूपमे विद्यमान अछि। ई मैथिलीक पहिल इंटरनेट पत्रिका थिक जकर नाम बादमे १ जनवरी २००८ सँ "विदेह" पड़लै। इंटरनेटपर मैथिलीक पहिल उपस्थितिक यात्रा विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि, जे http://www.videha.co.in/   पर ई प्रकाशित होइत अछि। आब “भालसरिक गाछ” जालवृत्त 'विदेह' ई-पत्रिकाक प्रवक्ताक संग मैथिली भाषाक जालवृत्तक एग्रीगेटरक रूपमे प्रयुक्त भऽ रहल अछि। विदेह ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA

 

(c)२०००-२०२२. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ जतऽ लेखकक नाम नै अछि ततऽ संपादकाधीन। विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका ISSN 2229-547X VIDEHA सम्पादक: गजेन्द्र ठाकुर। सह-सम्पादक: डॉ उमेश मंडल। सहायक सम्पादक: राम वि‍लास साहु, नन्द विलास राय, सन्दीप कुमार साफी आ मुन्नाजी (मनोज कुमार कर्ण)। सम्पादक- नाटक-रंगमंच-चलचित्र- बेचन ठाकुर। सम्पादक- सूचना-सम्पर्क-समाद- पूनम मंडल। सम्पादक -स्त्री कोना- इरा मल्लिक।

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गुरुवार, 29 मई 2008

संस्कृतम् तिरहुताम्

1.संस्कृत कथा ( गजेन्द्र ठाकुरः)

गंगातीरे एकः साधुः अस्ति। सः सज्जनः। सर्वदा परोपकारम् करोति। दयालुः अपि आसीत। सः यः कोपि आगत्य सहाय्यम पृच्छतेत सः परोपकारम करोति। एकः बालकः आगत्य किमपि पृच्छति। तस्य सहायम् करोति। एकदा सः साधुः स्नानार्थम् गंगां नदीं गच्छति। सः गंगा नद्याम अवतरति। स्नानं करोति। तदा प्रवाहे एकः वृश्चिकः आगच्छति। वृश्चिकस्य स्वभावः दंशनम्। दुष्ट स्वभावः। सः वृश्चिकः तत्र तस्य समीपम् आगच्छति। तदा सः साधुः वृश्चिकः रक्षणीयः इति चिन्तयति। सः साधु वृश्चिकं गृह्णाति। सः वृश्चिकः बहुवारं तस्य हस्तं दशति। एकवारं सः त्यजति, पुनः दशति। पुनः गृह्णाति, पुनः दशति। तथापि सः साधुः वृश्चिकं न त्यजति।सम्यक् गृह्णाति। अत्र तटम् आनयतुं प्रयत्नं करोति। सः साधुः वृश्चिकं त्यजति। पुनः चिंतयति- एषः वृश्चिकः रक्षणीयः इति। सः वृश्चिकं पुनः गृह्णाति। सावधानं नदीतटम् आनयेति। तत्र एकः पुरुषः सर्वं पश्यन् भवति। साधुं किं करोति। इति पश्यन् भवति। तदा सः पुरुषः पृच्छति। भोः। किमर्थं वृश्चिकं रक्षति। सः दशति किल। इति। तदा साधुः वदति। भोः। तस्य स्वभावः सः। दुष्टः स्वभावः। मम् स्वभावः परोपकारः। क्षुद्रः जंतुः सः यथा सः स्वभावं न त्यजति तथा अहं मनुष्यः। मम् स्वभावं कथं त्यजति। इति सः साधुः तम वदति। सज्जनस्य स्वभावः किदृशः भवति किल।
कथायाः अर्थः ज्ञातः खलु। ज्ञातः।
2.कथा ( गजेन्द्र ठाकुरः)

अहं इदानीम् एकं लघुकथां वदामि।
काशीः नगरे एकः महान् पण्डितः आसीत्। सः बहुषु शास्त्रेषु पारंगतः आसीत्। तस्य समीपे बहुछात्राः अध्ययनं कुर्वंति स्म। तस्य ख्यातिः सर्वत्र प्रसारिता आसीत्। अतः दूर-दूरतः छात्राः आगच्छंति स्म।
एकदा कश्चन् शिष्यः तस्य समीपम् आगतवान्। सः गुरोः नमस्कारं कृत्वा पृष्ठवान्- भोः। अहं भवतः समीपे अध्ययनं कर्त्तुम इच्छामि। अतः माम शिष्यत्वेन स्वीकरोतु। इति सः उक्तवान्। किंतुः सर्वेषाम छात्राणां बुद्धि परीक्षां कृत्वा एव तान स्वीकरोति स्म। अतः एतस्य अपि बुद्धि परीक्षां कर्त्तुम सः एकं प्रश्नं पृष्ठवान। भोः वत्सः। देवः कुत्र अस्ति। इति पृष्ठवान। तदा शिष्यः उक्तवान। भगवन्। देवः कुत्र नास्ति। सः सर्वोव्यापी अस्ति। इति। प्रस्नरूपेण एव गुरुः पृष्ठवान। एतस्य उत्तरम् श्रुत्वागुरुः अत्यन्तं संतुष्टः जातः। सः हर्षेण तम् आलिङ्गितवान। तम उक्तवान अपि। भोः वत्सः। भवान् बुद्धिमान् बालकः अस्ति। भवंतम् अहं शिष्यत्वेन निश्चयेन स्वीकरोमि। सत्यं देवः सर्वव्यापि अस्ति। इति तम उक्तवान, शिष्यत्वेन अंगीकृतवान। एवं सः शिष्यः तत्रैव विद्याभ्यासं कृतवान,गुरोः आशीर्वादं प्राप्तवान। भवन्तः कथाम् अर्थः ज्ञातवंतः किल।
सुभाषितम्( गजेन्द्र ठाकुरः)


वयम् इदानीम् अद्यापि एकस्य सुभाषितस्य अभ्यासः कुर्मः। भवंतः इदानीं सुभाषितम् श्रुणवंतु।
अयं निजः परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
इदानीं यत् सुभाषितम् श्रुण्वंतः तस्य अर्थः एवम् अस्ति। लोके द्विविधाः जनाः भवति। केचन् लघु मनस्काः।ते चिंतयंति, एषः मम जनः। एषः मम जनः न। इति चिंतयंति। अन्ये केचन् संति, महात्मानामः। उदार च्रिताः। ते चिन्तयन्ति-जगत एव मम कुटुम्बः। लघु कुटुम्बः। तेषां दृष्टयासमग्रः प्रपञ्चःएव मम कुटुम्बः। सज्जनाः एवं चिंतनं कुर्वंति। धन्यवाद:।

सुभाषितम्( गजेन्द्र ठाकुरः)


नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने। विक्रमार्जित सत्त्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता।
वयं इदानीं यत् सुभाषितं श्रुतवंतः तस्य सुभाषितस्य अर्थः एवम् अस्ति। सिंहः वनराजः इति प्रसिद्धः। किन्तु तस्य कोपि अभिषेकं न करोतु। किमपि संस्कारं न ददाति। तथापि सः वनराजः। कथं सः स्वसामर्थयेन एव स्व प्रयत्नेन् एव वनस्य आधिपत्यं प्राप्नोति। एवमेव सामर्थ्यवान् पुरुषः स्वस्य प्रयत्नेन एव अत्यन्तं पदं प्राप्तुम शक्नोति।

पद्य ( गजेन्द्र ठाकुरः)
चटका चञ्चति नृत्यति उड्डयति आकाशे। रचयति नीडं चटका वृक्षे आकाशे।
नगरं ग्रामं क्षेत्रं भ्रमति चटका आकाशे। आहारं प्राप्नोति आगच्छति सायं दृश्टवा, न कोलाहलं करोति गायति सा चटका।
कलहः करोति न चटका तत्र मध्ये आकाशे, कलहः न करोति चटका च क्षेत्रे गृह मध्ये।
पश्यतु http://www.videha.co.in/

ब्लॉग् संस्कृते अपि

पश्यंतु ।ACKNOWLEDGEMENTS: chamu krishna shashtry, janardan hegde, vinayak hegde, sudhishtha kumar

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